दोहा (ऋतुराज बसंत )

💐विद्या - दोहा

शीर्षक - ऋतुराज बसंत

ओ रे ऋतुराज बसंत,तु ऋतुओ का राजा l
सबके मन का पीर हर,धर सिर मौर ताजा l

पपीहा करता पी - पी, कोयल कूक मारे l
विरही का मन बेचैन, सुनकर बैन सारे l

विरह में बावरा हुआ, पी की करे पुकार l
वेदना बढ़ती जाती,चलता प्रेम कटार l

ओ निष्ठुर ऋतु बसंत, तन मन शूल चुभता l
अबला पर घात करता,दिखा रहा वीरता l

पिया गये जब परदेश, रंग ढंग दिखाया l
अबला मुझको जान कर, पुष्प जाल बिछाया l

अबला नहीं सबला हूँ, घुटने न टेकुंगी l
धर्म धर पतीव्रत का, वार मैं रोकुंगी l


है तु ऋतुओं का राजा, मैं पिया की रानी l
अपनी मर्यादा में रह, करना न मनमानी l


पुष्प बाण तेरा, धरा रह जायेगा l
कृष्ण नाम कवच कभी, भेद न तु पायेगा l

मन वन महक जाये यूँ, बसंत सुमन बरसा l
सबकी आश  हो पूरी, कोई न हो प्यासा l

विरह वेदना को मिटा, सबका साथी मिला l
प्रीत भरके मीत मिले, यूँ मन  बगिया खिला l

लोकेश्वरी कश्यप
मुंगेली, छत्तीसगढ़
19/01/2023

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