पंख
💐( नारी के अंतरद्वन्द व अंतर्मन की पीड़ा का वर्णन )
शीर्षक - पंख
उस देलेवाले नें कोई कमी नहीं की,
मूझे भी मिले खूबसूरत अरमानों भरें पंख l
मेरे लिए भी उसने बनाया खुला उन्मुक्त गगन,
दी मूझे भी सोचने विचारने की शक्ति,
वही अहसास भरा दिल, पंचतत्त्व का शरीर,
सबकुछ देकर उसने मूझे भेजा धरा पर,
डरी, सहमी, हर्ष लिए आई यहाँ पर मैं,
मिला संरक्षण, स्नेहिल माता -पिता का,
जो उनके बस में था, सब हमपर निछावर कियाl
दिल पर पत्थर रख माता-पिता नें कन्यादान किया l
समाज की रीत निभाने सौप दिया किसी को,
सर झुका चल दिए उनके पीछे चुपचाप,
वहाँ नहीं मिला हमें वो खुला आसमान,
जहाँ अरमानों के पंख फैला गहरी साँस भर सके,
अपनी अभिलाषाओ को पूरा कर सके l
धीरे - धीरे हमारी चाहतों के पंख उखड़ने लगे,
जिनपे हमनें अपने से ज्यादा यकीन किया,
जिन्हें प्यार से अपने सारे सपने सौप दिए,
अपने मतलब की कैंची से उसनें ही,
मेरे अरमान भरे पंख काट डाले l
मैं निष्तब्ध देखती रही मूक दर्शक बन,
आंसुओं से भीगता रहा मेरा आँचल,
पीड़ा से तड़पती रही मैं,
मेरी ही सिसकियो में दब गई मेरी तड़पन l
कभी किसी नें पूछी नहीं मेरी पसंद,
महसूस नहीं किया कभी मेरी अनकही वेदना,
वो टीस जो भीतर ही भीतर दम घोंटती है,
फिर कभी कोई सपना आँखों में सजने नहीं देती l
कोई क्या समझे वो पीड़ा जो अपनों से मिलती है l
किसी हादसे में पंख टूटे तो समझे भी,
जब पंख काटने वाले अपने ही हो तो कोई क्या करे
दर्द अपना मैं यूँ भुलने की कोशिश करती हूँ l
मौजूद है इस जहाँ में जाने कितने लोग,
जो मुझसे भी ज्यादा तन्हा और घायल है l
मेरी पीड़ा कुछ भी नहीं है उनके दर्द के सामने l
पर सोचती हूं उस ऊपर वाले ने
क्यों दिए मुझे अरमानों के पंख l
जब रौदे ही जाने थे हमारे चाहतो के पंख l
लोकेश्वरी कश्यप
जिला मुंगेली छत्तीसगढ़
शीर्षक - पंख
उस देलेवाले नें कोई कमी नहीं की,
मूझे भी मिले खूबसूरत अरमानों भरें पंख l
मेरे लिए भी उसने बनाया खुला उन्मुक्त गगन,
दी मूझे भी सोचने विचारने की शक्ति,
वही अहसास भरा दिल, पंचतत्त्व का शरीर,
सबकुछ देकर उसने मूझे भेजा धरा पर,
डरी, सहमी, हर्ष लिए आई यहाँ पर मैं,
मिला संरक्षण, स्नेहिल माता -पिता का,
जो उनके बस में था, सब हमपर निछावर कियाl
दिल पर पत्थर रख माता-पिता नें कन्यादान किया l
समाज की रीत निभाने सौप दिया किसी को,
सर झुका चल दिए उनके पीछे चुपचाप,
वहाँ नहीं मिला हमें वो खुला आसमान,
जहाँ अरमानों के पंख फैला गहरी साँस भर सके,
अपनी अभिलाषाओ को पूरा कर सके l
धीरे - धीरे हमारी चाहतों के पंख उखड़ने लगे,
जिनपे हमनें अपने से ज्यादा यकीन किया,
जिन्हें प्यार से अपने सारे सपने सौप दिए,
अपने मतलब की कैंची से उसनें ही,
मेरे अरमान भरे पंख काट डाले l
मैं निष्तब्ध देखती रही मूक दर्शक बन,
आंसुओं से भीगता रहा मेरा आँचल,
पीड़ा से तड़पती रही मैं,
मेरी ही सिसकियो में दब गई मेरी तड़पन l
कभी किसी नें पूछी नहीं मेरी पसंद,
महसूस नहीं किया कभी मेरी अनकही वेदना,
वो टीस जो भीतर ही भीतर दम घोंटती है,
फिर कभी कोई सपना आँखों में सजने नहीं देती l
कोई क्या समझे वो पीड़ा जो अपनों से मिलती है l
किसी हादसे में पंख टूटे तो समझे भी,
जब पंख काटने वाले अपने ही हो तो कोई क्या करे
दर्द अपना मैं यूँ भुलने की कोशिश करती हूँ l
मौजूद है इस जहाँ में जाने कितने लोग,
जो मुझसे भी ज्यादा तन्हा और घायल है l
मेरी पीड़ा कुछ भी नहीं है उनके दर्द के सामने l
पर सोचती हूं उस ऊपर वाले ने
क्यों दिए मुझे अरमानों के पंख l
जब रौदे ही जाने थे हमारे चाहतो के पंख l
लोकेश्वरी कश्यप
जिला मुंगेली छत्तीसगढ़
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