रे मनवा तू भरम से निकल

शीर्षक : रे मनवा तू भरम से निकल 


 रे मनवा तू भरम से निकल,
 इसके जरिए कर ले उसकी भक्ति,
 तेरी जिंदगी तर जाएगी l
 तू चाहे जितना इसे सजा ले, संवारे ले,
 यह तन है मिट्टी की गुड़िया,
एक दिन मिट्टी में ही मिल जाएगी  l



 रे मनवा तू भरम से निकल,
 तू जितना इस पर जान छीड़केगा,
यह तुझे उतना ही तुझे तड़पाएगी l
 धरी रह जाएगी तेरी सारी चालाकी,
 यह तुझे मदारी सी मचाएगी l


 रे मनवा तू भरम से निकल
 कोई धाम नहीं है यह तेरा,
 यह बस एक खाली मकान है  l
 माया नगरी की इस दुनिया में,
 बस सजी-धजी एक दुकान है  l

 रे मनवा तू भरम से निकल,
 इस मायानगरी में देखो तो सही,
 ऐसी सैकड़ों सजी -धजी दुकानें हैं l
 यह तन तो उस माया पति की,
 चलती -फिरती मिट्टी की गुड़िया है l

 रे मनवा तू भरम से निकल,
 उसने दिया यह तन हमको,
उसकी भक्ति रस के पान को l
 अपना समझ बैठे हो तुम पगले ,
 उस दीनदयाल  के दान को l

 रे मनवा तू भरम से निकल,
 कर ले उसकी निश्छल  भक्ति,
 गौरवान्वित कर ले इस तन मन को  l
 अर्पण कर दे सारे कर्म अपने,
 कर्म फल को त्याग कर,धारण कर तू धर्म को l



 लोकेश्वरी कश्यप
 जिला मुंगेली छत्तीसगढ़
01/04/2022

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